कर्मों का फल – हिंदी कहानी :- एक समय की बात है, एक जंगल में एक ज्ञानी बाबा रहते थे, प्रत्येक दिन की ही भाँति वो एक दिन प्रातः काल नहा कर सूर्य को जल अर्पित कर, फिर मछलियों को दाना खिला, मंदिर की और चल पड़े। बाबा कुछ दूर चले ही थे कि उन्हें एक भिक्षुक दिखा जो थका और निराश सा प्रतीत हो रहा था, शायद बहुत समय से भिक्षा मांगने और भिक्षा न मिलने के बाद हतास और निराश था।
बाबा समझ गए कि उसे भिक्षा नहीं मिली है और वह बहुत भूखा है, बाबा को उस भिक्षु पर दया आ गयी और उन्होंने उसे कुछ खाने के लिए देने का सोचा। बाबा भिक्षु के पास गए और अपने कमंडल से उसे एक सेब निकाल कर दिया, सुबह से भूखा होने के कारण वह सेब को देखते ही अत्यंत प्रसन्न हो गया और उसे स्वीकारते हुए खाने के लिए व्याकुल हो उठा।
लेकिन जैसे ही भिक्षु सेब खाने वाला ही था कि सेब उसके हाथ से गिर गया और नदी में जा गिरा, नदी गहरी होने के कारण वह नदी से सेब नहीं उठा सकता था। यह सब देखकर उस भिक्षु का दिल बैठ सा गया कई दिनों से इतना घूमने के बाद उसे एक सेब ही मिला था और वह भी उससे गिर गया, उसने आशा भरी नजरों से फिर से उन बाबा जी की तरफ देखा और चाहा कि वह उसे एक सेब और दे दें, पर दुर्भाग्यवश बाबा के पास अब और कोई सेब या खाने योग्य को खाद्य पदार्थ नहीं था।
बाबा ने उसे कहा कि “तुम आगे दूसरे गांव में चले जाओ, वहाँ तुम्हें जरूर कोई न कोई भिक्षा दे देगा।”
यह सुन वह भिक्षुक निराश होकर अगले गांव की तरफ चले गया और बाबा मंदिर की तरफ बढ़ चले, वे कुछ दूर पहुँचे ही थे कि उन्हें एक और भिक्षुक आता दिखा, वह प्रसन्न लग रहा था उसके चेहरे पर अलग ही शांति और ख़ुशी की अनुभूति थी।
बाबाजी उसके पास पहुंचे और उससे पूछा “हे भिक्षुक तुम तो अत्यधिक प्रसन्न और शांत प्रतीत होते हो, जबकि अभी कुछ दूरी पर ही तुमसे पहले यहाँ से गुजरा एक भिक्षुक अत्यधिक दुखी और अशांत प्रतीत हो रहा था। यह कैसे संभव है कि तुम इतने शांत और वह इतना अशांत था।”
भिक्षुक बोला “बाबा जी प्रणाम, यह सब कर्मों का फल है, वह और मैं एक ही साथ इस गांव में आए थे, पर वह आरम्भ से ही बिना कार्य के फल चाहने वाली प्रवृत्ति का था इसलिए वह दिन भर हमारी कुटिया पर विश्राम करता और मैं पूरा दिन घूम कर भिक्षा इकट्ठा करता था, जब मैं कुटिया में जाकर स्वयं के लिए खाना बनाता था तो वह मुझसे अत्यधिक प्रेम से खाना मांग लिया करता था। वह मेरी मदद करने के बहाने अपनी थाली में स्वादिष्ट भोजन ले लेता और मेरे खाने में पानी मिला दिया करता था, मैं सब कुछ जानकर भी चुप चाप खा लिया करता था।”
बाबा बड़े गौर से भिक्षुक की बात सुन रहे थे।
भिक्षुक बोलता रहा – “एक दिन जब वह मेरे खाने में पानी मिला ही रहा था कि तभी मैं वहाँ पहुँच गया, मुझे वहां देख वह हड़ बड़ा गया और उसके हाथों से सारा खाना गिर गया। खुद को बचाने के लिए वह मुझसे ही लड़ गया और बोलने लगा कि मेरी वजह से ही खाना बर्बाद हो गया है और मैं जानबूझकर ऐसा खाना लाता हूँ जोकि बिल्कुल भी स्वादिष्ट और खाने योग्य नहीं होता है। यही सब बड़ बड़ाते हुए वह कुटिया छोड़कर चले गया और बोला मैं कभी नहीं आऊंगा तुम्हारे यहाँ।”
बाबा ने पूछा “फिर क्या हुआ ?”
भिक्षुक बोला “मैंने तब भी उससे कुछ नहीं कहा और सदैव की तरह अपनी दिनचर्या में भिक्षा मांगने के लिए चले गया परन्तु वह तो कभी भिक्षा मांगने जाता ही नहीं था इसलिए वह अपने एक वक़्त के लिए भी भिक्षा अर्जित नहीं कर पा रहा है और अगर कभी कोई उसकी सहायता करने के लिए उसे कोई भोज्य पदार्थ दे भी देता है, तब भी वह उसे खा ही नहीं पाता है, न जाने किसी न किसी कारण उसका भोज्य पदार्थ या तो गिर जाता है या ख़राब हो जाता है या कोई जानवर और पक्षी उस खाने को छीन कर भाग जाता हैं”
बाबा सब बात समझ गए और बोले “क्योंकि वह किसी और के खाने में बुरी दृष्टि डालता है और स्वयं कर्म नहीं करता है इसलिये उसे कभी अच्छा फल नहीं मिलता है, छल का परिणाम सदैव बुरा ही होता है। अतः उसे अपने ही कर्मों की सजा मिल रही है। भगवान उसे सद्बुद्धि दे !”
यह कहते हुए बाबा मंदिर की और चल पड़े और भिक्षुक अपनी कुटिया की तरफ।
कहानी से शिक्षा
कर्मों का फल सदैव मिलता है और किसी के साथ छल करने का दुष्परिणाम छल करने वाले व्यक्ति को भुगतना ही पड़ता है इसलिए दूसरों से छल करना स्वयं के साथ छल करने के समान है तभी कहा गया है जैसा फल बोओगे वैसा ही फल काटोगे। अतः न कभी किसी का बुरा सोचें और न ही किसी का बुरा करें।