ज्ञानेंद्र की आशा की किरण की कहानी हिंदी में :- बहुत पुरानी बात है यशस्वीपुर नामक एक राज्य में ज्ञानेंद्र और वीरन नाम के दो युवा रहते थे, जिसमें ज्ञानेंद्र काफी चतुर और चपल था जबकि वीरन शांत और सौम्य स्वभाव का आदमी था। ज्ञानेंद्र और वीरन काफी घनिष्ठ मित्र थे और हर वक्त साथ रहा करते थे, वो सोना-जागना, खाना-पीना आदि सब साथ ही किया करते थे।
ज्ञानेंद्र और वीरन दोनों को ही घुमनें का काफी शोक था वो घूमते-घूमते नगर से दूर वनों की तरफ चले जाया करते थे। एक दिन वो घूमते-घूमते नगर की दूसरी छोर पर चले गए जोकि उनके घर से काफी दूर था। घूमते-घूमते और बाजार के सुन्दर नज़ारे देखते हुए दोनों को ही समय का ज्ञान न हुआ और दिन ढल गया।
जब वह दिन ढले एक घर के पास से गुजर रहे थे कि तभी उन्होंने चोर-चोर की आवाज सुनी, जिस घर के पास से वह गुजर रहे थे उसी घर में से कोई चोर-चोर चिल्ला रहा था। शोर सुनकर आस-पास के घर वाले भी वहां एकत्रित हो गए और रात को गश्त पर निकले हुए सैनिक भी वहां आ गए।
सैनिकों ने ज्ञानेंद्र और वीरन को पकड़ लिया क्योंकि वहां वे दोनों ही नए जान पड़ते थे बाकि नागरिकों को तो सैनिक अच्छे से पहचानते थे। सैनिकों ने ज्ञानेंद्र और वीरन से पूछा की वह यहाँ दिन ढले रात के समय क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि वह यहाँ घूम रहे थे। सैनिकों ने फिर पूछा कि तुम कहाँ के रहने वाले हो, तो उन्होंने बताया कि वह नगर के पूर्व की तरफ रहते हैं और घूमते-घूमते यहाँ आ गए हैं।
सैनिकों और नगर वालों को उनकी बात कुछ अटपटी सी लगी क्योंकि नगर के पूर्वी छोर से काफी दूरी होने के कारण कोई पश्चिमी छोर पर घूमने तो नहीं आता है और आता भी है तो घोड़ों पर आता है पर ज्ञानेंद्र और वीरन तो पैदल ही इतनी दूरी तय करके आये थे।
किसी को भी ज्ञानेंद्र और वीरन की बातों पर विश्वास न हुआ और उन्हें सैनिकों ने पकड़कर अगले दिन राजा के समक्ष राजदरबार में प्रस्तुत किया। यशस्वीपुर का राजा विशनदेव था वह काफी न्यायप्रिय और जुर्म के प्रति कठोर था। जब राजा विशनदेव को पता चला कि उनके राज्य में चोरी हुई है तो वह बहुत क्रोधित हुए।
राजा विशनदेव ने अपने सेनापति को चोरों को पकड़ने को कहा तो सेनापति ने बताया कि उन्होंने ज्ञानेंद्र और वीरन नाम के दो युवकों को पकड़ा है जिस पर उन्हें शक है लेकिन वह अपना गुनाह नहीं स्वीकार रहे हैं। राजा ने ज्ञानेंद्र और वीरन से उनका पता और उस समय चोरी के स्थल पर पाए जाने का प्रयोजन पूछा।
ज्ञानेंद्र और वीरन ने वही सब राजा को बताया जो उन्होंने सैनिकों को बताया था। राजा विशनदेव को भी बात कुछ अटपटी सी लगी और वह ज्ञानेंद्र और वीरन के जवाबों से संतुष्ट न हुआ।
इस पर राजा विशनदेव ने कहा कि जिस व्यक्ति के घर में चोरी हुई है उसे प्रस्तुत किया जाये। जब वह व्यक्ति प्रस्तुत हुआ तो उससे राजा ने पूछा कि क्या तुम इन दोनों (ज्ञानेंद्र और वीरन) को जानते हो। गृहस्वामी ने कहा कि नहीं राजा जी मैं इन दोनों को नहीं जनता हूँ और चोरी वाले दिन सैनिकों द्वारा इन्हें पकड़े जाने से पहले मैंने इन्हें नहीं देखा था।
तो राजा ने पूछा कि “क्या इन्होंने ही चोरी कि है?”
गृहस्वामी ने कहा “मैं यह नहीं जनता हूँ !! मैंने इन्हें चोरी करते समय नहीं देखा था”
राजा विशनदेव असमंजस में पड़ गए, सभी साक्ष्य ज्ञानेंद्र और वीरन के खिलाफ थे लेकिन वह अपना जुर्म स्वीकारने को तैयार नहीं थे परन्तु न्याय करना जरुरी था अन्यथा चौरी जैसी और भी घटनाएं राज्य में होने का डर था, दोनों युवकों को कड़ी से कड़ी सजा देकर चोरी करने वाले या उसके बारे में ख्याल भी लानें वालों के मन में डर भी बैठाना था।
अतः राजा ने अपने सलाहकारों के साथ सलाह कर, ज्ञानेंद्र और वीरन को मृत्यु दंड की सजा सुनाई। यह सुनकर ज्ञानेंद्र और वीरन के पसीने छूट गये, उन्हें अपना अंत नजदीक नजर आने लगा, हलक सुख गया उनकी समझ नहीं आ रहा था कि बिना किसी जुर्म के इतनी कठोर सजा उन्हें मिल रही है अब वह क्या करें ?
वीरन ने रोना-धोना शुरू कर दिया, वह राजा से माफी की गुहार करने लगा लेकिन ज्ञानेंद्र शांत खड़ा था। यह देख राजा को बड़ी हैरानी हुई उसने ज्ञानेंद्र से पूछा कि वह मृत्यु दंड सुनकर भी इतना शांत कैसे खड़ा है।
ज्ञानेंद्र जानता था कि राजा को अपने घोड़े से बहुत लगाव है और यह सोचकर ही उसके दिमाग में एक तरकीब आ गयी।
ज्ञानेंद्र ने कहा “श्रीमान राजा जी, आप न्यायप्रिय राजा हैं और आपका न्याय सर्वोपरि है लेकिन मैं जरा सोच में हूँ !!”
राजा ने पूछा “कैसी सोच ?”
ज्ञानेंद्र ने बोला “मैं सोच रहा हूँ कि मेरे मरने से आपका बहुत बड़ा नुकसान होगा !!”
राजा ने अचंभित होकर पूछा “वो भला कैसे ?”
ज्ञानेंद्र बोला “राजा जी मैं एक ऐसी कला जनता हूँ जिससे में 1 वर्ष में किसी भी घोड़े को उड़ना सीखा सकता हूँ !!”
राजा और पूरी सभा यह बात सुन बड़ा अचंभित हुई कि कोई घोडा भला कैसे उड़ सकता है! राजा ने ज्ञानेंद्र की तरफ काफी तल्ख़ लहजे में देखा और कहा कि “क्या तुम हमें मुर्ख समझते हो ? कोई घोडा भला कैसे उड़ सकता है ?”
इस पर ज्ञानेंद्र ने कहा “राजाधिराज मैं मृत्यु के द्वार पर खड़ा हूँ !! मैं भला आपसे झूट क्यों बोलूंगा ?”
राजा और बाकि सभापतियों को बात सही लगी कि मृत्यु के द्वार पर खड़ा आदमी क्यों झूट बोलेगा और अगर झूट बोल भी रहा है तो वो हिरासत में ही है उसे एक वर्ष पश्चात भी तो सजा दी जा सकती है और अगर ज्ञानेंद्र सफल रहा तो राजा को पहले उड़ने वाले घोड़े की सवारी करने का अवसर प्राप्त होगा।
अतः राजा और सलाहकारों ने ज्ञानेंद्र को एक वर्ष का समय देने का निर्णय लिया।
ज्ञानेंद्र यह आदेश सुन मन ही मन थोड़ा खुश हुआ और राजा से विनती की कि उसके मित्र वीरन को भी एक वर्ष बाद ही सजा दी जाये क्योंकि अपने मित्र कि सहायता के बिना वह घोड़े को उड़ना सीखाने में सक्षम नहीं है। राजा ने यह भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।
अब ज्ञानेंद्र और वीरन को एक काल कोठरी में बंद कर दिया गया। वीरन अभी तक हैरान था कि उसके मित्र ने राजा के समक्ष यह कौन सी कला कि बात की है वह तो ज्ञानेंद्र के साथ बचपन से रहा है और उसने तो ज्ञानेंद्र को ऐसा कुछ भी कभी करते या बताते हुए नहीं देखा।
इस पर वीरन ने ज्ञानेंद्र से पूछा कि “क्या वह वाकई में घोड़े को उड़ना सीखा सकता है ?”
इस पर ज्ञानेंद्र ने जवाब दिया कि “नहीं! वो ऐसा नहीं कर सकता है!!”
यह सुन वीरन अपना सर पकड़ कर बैठ गया और बोला “यह तो तुमने और अनर्थ कर दिया, एक वर्ष बाद ही सही मृत्यु तो निश्चित है और उससे पहले ये एक वर्ष का कारावास भी सहना पड़ेगा !!”
इस पर ज्ञानेंद्र ने जवाब दिया “मैंने अनर्थ नहीं किया है बल्कि एक आशा की किरण जगाई है और हमें एक नया जीवनदान दिया है”
वीरन बोला “वह कैसे ?”
ज्ञानेंद्र ने जवाब दिया “एक वर्ष में कई संभावनाएं हैं
जैसे 1 वर्ष में राजा का घोड़ा मर सकता है,
खुद राजा मर सकता है,
राज्य पर किसी और राजा का अधिकार हो सकता है,
हम में से कोई मर सकता है या
फिर वह चोर पकड़ा जा सकता है जिसने वाकई यह चोरी की है।
अतः मेरे दोस्त इस एक वर्ष में बहुत कुछ हो सकता है बस आशावान रहो!!”
ज्ञानेंद्र की बातें सुन वीरन की आँखों में भी चमक सी आ गयी और उसके मन में भी आशा की किरण जाग गयी।
कुछ समय बिता ही था कि ज्ञानेंद्र के कहे अनुसार नगर में चोरी करने वाला वह चोर, चोरी के सामान के साथ नगर की सीमा पर पकड़ा गया। चोर ने राजा और पूरी सभा के सामने आपने सभी चोरियों को स्वीकार कर लिया।
राजा को एहसास हुआ कि ज्ञानेंद्र और वीरन को तो किसी और के गुनाहों की सजा दी जा रही है अतः राजा ने उन्हें राजदरबार में बुलाया और अपने गलत फैसले और उन्हें हुए कष्टों के लिए, दोनों से माफ़ी मांगी। साथ ही कहा कि अब वह दोनों बिना डरे और तकलीफ के राजा के घोड़े को उड़ना सीखा सकते हैं।
इस पर ज्ञानेंद्र ने कहा कि “अगर राजा जी जान बख्शें तो वह कुछ अर्ज करना चाहता है !!”
राजा ने इशारे में कहा बताओ
ज्ञानेंद्र बोला “राजन, मैं भी आपसे अपने झूट के लिए माफ़ी माँगना चाहता हूँ, मैंने झूट कहा था कि वह घोड़े को उड़ना सीखा सकता है !!”
इस पर राजा थोड़ा क्रोधित हुआ।
राजा को क्रोधित होता हुआ देख ज्ञानेंद्र झट से बोल पड़ा “लेकिन राजन मेरे इस झूट ने राजा को 2 निर्दोषों की अकाल मृत्यु के पाप से बचाया है, अगर वह उस दिन अपना दिमाग चला झूट न बोलता तो वह और उसका मित्र मारे जा चुके होते और उनकी मृत्यु का पाप राजा के सिर होता, अतः राजन मरता क्या न करता, मुझे न चाहते हुए भी झूट बोलना पड़ा जिसके लिए में क्षमा प्रार्थी हूँ”
राजा को भी ज्ञानेंद्र की बात सही लगी, साथ ही ज्ञानेंद्र की बुद्धि से राजा काफी प्रभावित हुआ और उसे व उसके दोस्त को माफ़ कर दिया। साथ ही ज्ञानेंद्र को अपने सलाहकार समूह में भी शामिल कर लिया।
कहानी से शिक्षा
इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि स्थिति चाहे कितनी भी भयावह और खतरनाक क्यों न हो इंसान को कभी भी आशा नहीं छोड़नी चाहिए। परिस्थिति चाहे कितनी भी बुरी या विषम क्यों न हो अगर हम निराश न हों और सदैव आशावान बने रहें तो कैसी भी परिस्थिति का सामना हस्ते-हस्ते किया जा सकता है।