सोने के कंगन और चालाक सेनापति की कहानी हिंदी में – बहुत समय पहले की बात है देवनगर नामक राज्य था जहाँ के राजा मोहन सिंह थे। राजा मोहन सिंह का बहुत बड़ा मंत्रिमंडल था, देवनगर राज्य में हर व्यक्ति किसी भी कार्य को करने से पहले राजा मोहन सिंह के मंत्रिमंडल के सेनापति से पूछते थे।
राजा मोहन सिंह एक न्यायप्रिय व्यक्ति थे जो हमेशा सब के साथ न्याय करते और दोषी को दंडित करते थे जिस कारण राजा मोहन सिंह अपने न्याय के लिए लोकप्रिय थे।
एक दिन राजा मोहन सिंह अपने पुत्र राजकुमार विक्रम के साथ पड़ोसी राज्य में गए हुए थे और राजा मोहन सिंह को पता था कि जिस कार्य के लिए राजा मोहन सिंह जा रहे हैं उसमें कुछ महीने लगेंगे इसलिए इस समय राजा मोहन सिंह ने राजकार्य का भार अपने मंत्री मंडल के सेनापति को सौंपा था।
कुछ समय बाद देवनगर राज्य का एक व्यक्ति रोते हुए राज दरबार में पहुँचा परंतु राजा मोहन सिंह को अनुपस्थित देखकर व्यक्ति सेनापति जी के पास गया और सेनापति जी को देखकर वह व्यक्ति रोने लगा और मदद माँगने लगा।
उस व्यक्ति को रोता देखकर सेनापति जी बोले-तुम कौन हो और तुम क्यों रो रहे हो? वह रोता हुआ व्यक्ति बोला सेनापति जी मेरा नाम राजू है मैं देवनगर राज्य का ही एक गरीब व्यक्ति हूँ।
मैं इसलिए रो रहा हूँ क्योंकि मेरी बहन बहुत बीमार थी और मैंने अपनी जमा पूँजी से मेरी बहन का इलाज करवाया परन्तु अब मेरी बहन जिन्दा नहीं रही, मेरे जीवन का एकमात्र सहारा मेरी बहन थी अब मुझे समझ नहीं आ रहा है मैं कैसे अपना जीवन व्यतीत करूँगा?
सेनापति जी बोले- विधि के विधान को कोई नहीं टाल सकता है अगर तुम्हें अपने जीवन में क्या करना चाहिए समझ नहीं आ रहा है तो तुम कुछ समय के लिए राज्य के बाहर स्थित मन्दिरों की यात्रा के लिए चले जाओ जिससे तुम्हारा मन शान्त होगा और भगवान की कृपा से तुम्हें जीवन जीने का लक्ष्य भी प्राप्त होगा।
यह सुनकर राजू सेनापति जी को धन्यवाद कहता है और अगले दिन ही यात्रा पर जाने के लिए घर जाकर अपना सामान रखने लगता है तभी राजू को अपनी बहन के सोने के कंगन मिलते हैं जो राजू की बहन की आखिरी निशानी थे।
राजू ने सोचा यात्रा के समय सोने के कंगन खो भी सकते हैं इसलिए कल मैं यह सोने के कंगन पास रख कर यात्रा पर जाऊँगा। अगले दिन सुबह राजू सेनापति जी के पास गया और बोला – सेनापति जी प्रणाम! मैं आज राज्य के बाहर स्थित मंदिरों की यात्रा पर जा रहा हूँ, यह सुनकर सेनापति जी राजू से बोले-ये तो बहुत अच्छी बात है राजू, भगवान तुमको जरूर जीवन जीने का कोई लक्ष्य देंगे।
फिर राजू बोलता है – सेनापति जी मैं कल जब यात्रा पर जाने के लिए अपना सामान रख रहा था तो मुझे अपनी बहन की आखिरी निशानी मिली जो मेरी बहन के सोने के कंगन है और यात्रा करते समय मेरी बहन के सोने के कंगन खोने का मुझे डर है तो क्या सेनापति जी मैं अपनी बहन की आखिरी निशानी मेरी बहन के सोने के कंगन आपके पास सुरक्षित रख सकता हूँ और राजू एक छोटा सा बक्सा सेनापति जी को दिखाता है।
सेनापति जी राजू से बोले – राजू अगर तुमको मुझ पर भरोसा है तो तुम अपनी बहन के सोने के कंगन मुझे सौंप दो परंतु आत्म संतुष्टि के लिए इस बक्से पर ताला लगा दो और स्वयं चाभी को अपने साथ ले जाओ ताकि तुमको संतुष्टि रहे कि मैं तुम्हारा बक्सा खोल भी नहीं सकता। फिर राजू ने अपने बक्से में ताला लगाया और सेनापति जी को अपना बक्सा सौंपकर राजू अपनी यात्रा पर चले गया।
कुछ समय बाद राजा मोहन और राजकुमार विक्रम अपने राज्य देवनगर में लौट आते हैं और एक दिन राजा मोहन और राजकुमार विक्रम सभा में देवनगर राज्य की किसी समस्या पर चर्चा कर रहे थे तो उसी समय एक व्यक्ति सभा में आने की कोशिश कर रहा था परन्तु राजा मोहन सिंह के सैनिकों ने उस व्यक्ति को सभा में नहीं जाने दिया तो वह व्यक्ति राज दरबार के दरवाजे से ही राजा मोहन सिंह से इंसाफ की गुहार लगाने लगा।
यह देखकर राजा मोहन सिंह ने उस व्यक्ति को दरबार के अंदर आने की आज्ञा दी और पूछा-तुम कौन हो और तुमको क्या इंसाफ चाहिए?
वह व्यक्ति राजा से बोला – महाराज प्रणाम! मेरा नाम राजू है मैं कुछ महीने पहले आपसे मिलने आया था क्योंकि कुछ समय पहले मेरी बहन बीमार थी जिसके इलाज में मैंने लगभग अपनी सारी जमा पूँजी लगा दी थी परन्तु मेरी बहन की मृत्यु हो गई और मेरा सहारा केवल मेरी बहन ही थी जिस कारण मुझे जीवन जीने का कोई लक्ष्य नहीं दिख रहा था।
जिस कारण मैं आपसे मदद माँगने आया था क्योंकि मुझे पता था आप कोई ना कोई सुझाव मुझे जरूर देंगे परंतु महाराज आप भी राज्य में नहीं थे इसलिए मैं सेनापति जी के पास गया और मैंने सेनापति जी को यह पूरी बात बताई तो सेनापति जी ने मुझे राज्य के बाहर के सभी मंदिरों की यात्रा का सुझाव दिया था।
अगले दिन मैं यात्रा पर जाने से पहले सेनापति जी के पास गया और मैंने अपनी बहन की आखिरी निशानी मेरी बहन के सोने के कंगन एक बक्से में रखकर सेनापति जी को संभालने के लिए दे दिए तो उस समय सेनापति जी ने मुझे अपने बक्से पर ताला लगाकर चाभी अपने साथ ले जाने को कहा तो मैंने यही किया।
कल मैं चार महीने बाद अपने राज्य में लौटा और सबसे पहले सेनापति जी के पास गया और मैंने सेनापति जी को बताया कि मुझे मेरे जीवन का लक्ष्य मिल गया है मैं छोटे बच्चों को धर्म की शिक्षा दूंगा और मैंने सेनापति जी का धन्यवाद किया।
सेनापति जी यह सुनकर बहुत खुश हुए और फिर सेनापति जी ने मुझे मेरा बक्सा वापस दिया। आज सुबह जब मैंने अपना बक्सा खोला तो मैंने देखा महाराज उसमें तो काँच के कंगन हैं मैं यह देखकर सीधे सेनापति जी के पास गया और मैंने सेनापति जी को बताया कि मेरे बक्से में सोने के कंगन की जगह काँच के कंगन हैं तो सेनापति जी क्रोधित हो गए कि मैं उनपर चोरी का इल्जाम लगा रहा हूँ और मुझे अपने कक्ष से बाहर निकाल दिया।
महाराज मेरे पास मेरी बहन की आखिरी निशानी में। केवल मेरे बहन के सोने के कंगन हैं कृपया मेरे साथ इंसाफ कीजिए। राजा मोहन सिंह सेनापति जी को दरबार में बुलाते हैं और राजा मोहन सिंह सेनापति जी से पूछते हैं-सेनापति जी क्या आपने राजू की बहन के सोने के कंगन लिए हैं?
सेनापति जी राजा से बोले – महाराज प्रणाम, महाराज जब राजू ने मुझे बक्सा दिया तो उस बक्से में ताला लगाकर दिया था और चाभी भी राजू के ही पास थी और जब राजू लौटा तो उसके बक्से का ताला टूटा तक नहीं था तो राजा मैं बिन ताले को खोले कैसे सोने के कंगन बदल दिए।
यह सुनकर राजकुमार विक्रम अपने पिता राजा मोहन सिंह से बोले – महाराज आप मुझे एक दिन का समय दीजिए, मैं सच को सबके सामने ले आऊँगा और राजा मोहन सिंह ने राजकुमार विक्रम को दो दिन का समय दे दिया।
फिर दो दिन बाद राजा मोहन सिंह ने सभा बुलवाई और राजकुमार विक्रम से बोले-राजकुमार विक्रम क्या आपने सच का पता लगा लिया है ?
राजकुमार विक्रम बोले-जी महाराज और राजकुमार दरबार में राज्य के सबसे अच्छे ताले का काम करने वाले व्यक्ति को बुलाते हैं और पूछते हैं क्या कुछ समय पहले तुमने किसी बक्से को बिन ताला तोडे खोला है?
तो वह व्यक्ति बोलता है-जी राजकुमार कुछ महीने पहले सेनापति जी एक छोटा बक्सा लाए थे जिसका ताला सेनापति जी तोड़ना नहीं चाहते थे तो मैंने ताला बिन तोडे खोल दिया।
यह सच्चाई राजा मोहन सिंह के सामने आ जाने पर सेनापति जी राजा से माफ़ी माँगते हैं परंतु राजा मोहन सिंह सेनापति जी से राजू की बहन के सोने के कंगन वापस लेकर राजू को दे देते हैं और सेनापति जी को झूठ और धोखेबाजी के लिए कारावास में डाल देते हैं।
कहानी से शिक्षा
हमें इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि झूठ चाहे कितनी ही सच्चाई से बोला जाए, एक दिन सच सबके सामने आ ही जाता है इसलिए झूठ बोलना गलत है।